मेरी कवितायेँ

रविवार, 8 जून 2008

कभी तुम मेरी मोहब्बत को आजमा के देखो – poem
कभी तुम मेरे पास आ के देखो –
कभी मुझसे दूर जा के देखो –
यूं तो देखा होगा तुमने ज़माने में इन्क्लाबों को –
कभी मेरी आवाज़ में अपनी आवाज़ मिला के देखो-
तलाशते हैं दरख्त भी साये को धूप में-
कभी सीने में तुम मेरे अपना चेहरा छिपा देखो –
चलो आओ बाहर निकलो अपने दायरों से –
उठाकर अपने हाथो को ——
मुद्दतों जिसे चाहा – वो मंजर शहर का देखो

——-शुक्रवार, 13जून2008——————————————————-

ये इन्तहा थी

मैं था – मेरा जूनून था – और था – इश्के रूहानी ,
तू कंहाँ था – कंहाँ तेरी फ़िक्र – कंहाँ थी तेरी कहानी ,
फिर तब – क्यों तेरी तब्बसुम – एक आगोश में बदली ,
बस सिर्फ़ तू था — तेरी फिकर- और बस तेरी कहानी ,
मुस्कराहटें – और सरगोश्याँ – खामोशियाँ ये तो पहचानी ,
न पहचानी तो मेरी अक्ल- फरके मज़ाजो इश्के रूहानी ,
न तू था – न मैं था – था तो बस एक वजूद ———-
ये इन्तहा थी – या इश्क था – या थी बस एक हैरानी .sufi

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कौन ये जा रहा मौन ——

कौन ये जा रहा मौन ————–
हो बेटा -ओ बैरी – हा जीजी dr
इन तमाम करुण क्रन्दनो के बीच
असम्प्रकत- वीतराग सा शुभ्र वसन मीत —
कौन ये जा रहा मौन ,
मृत्यु के महानुष्ठान में दे रहा हवि–अचेत ,
हर पल हर घड़ी मानवता कि सेवा में संलग्न ,
या माया मोह में निमग्न ,
पा रहा स्वयं को निर्लिप्त योगी सा -या कर्मनिष्ठ —
कौन ये जा रहा मौन ———————–
ताकता हिकारत से — चहुँ और ,
निपट गंवार – दरिद्र -मूर्ख-जाहिल -पापी – रुग्ण –
इन नरक के हरकारों के बीच ,
नीम की जीर्ण पीत झरी चटकती पत्तियों पर ।
अभिशप्त रुग्णालय के खंडहरनुमा देवालय की निस्तब्ध प्रस्तर प्रतिमा सा —
कौन ये जा रहा मौन ————————————
कल तक थी जिसमें आग भस्म कर देने को –
समस्त धरा की ज़रा—–
अतीत के किसी ज्वालामुखी की राख के ढेर सा शांत —
सम्प्रति धीर प्रशान्त —-स्थितिप्रज्ञा सा ——–
कौन ये जा रहा मौन

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तुम्हारी तमाम बदमाशियों के बावजूद –

मैं लगा लेना चाहता हूँ तुम्हे अपने सीने से –

hug
चूम लेना चाहता हूँ तुम्हारा माथा और
तुम्हे अपने आगोश में लेकर डूब
जाना चाहता हूँ तुम्हारी निगाहों में –
गहरे और गहरे और गहरे ताकि –
उनकी गहराइयों से ढूंढ़ कर ला सकूँ
वो राज – जहाँ से जन्म होता है
इन बदमाशियों का – जिनसे तुम
सताती हो तमाम ज़माने को
और मुझे भी

 

 

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